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केंद्र सरकार ने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (ULFA) पर प्रतिबंध को अगले 5 वर्षों के लिए बढ़ा दिया है।
गृह मंत्रालय ने कहा कि ULFA, अपने सभी गुटों और अग्रणी संगठनों के साथ मिलकर ऐसी गतिविधियों में शामिल रहा है, जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए हानिकारक हैं।

असम को भारत से अलग करने के उद्देश्य से जारी गतिविधियों के कारण केंद्र सरकार ने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (ULFA) पर प्रतिबंध को अगले 5 वर्षों के लिए बढ़ा दिया है। इस आशय की अधिसूचना गृह मंत्रालय द्वारा 25 नवंबर, 2024 को जारी की गई।
ULFA को पहली बार 1990 में प्रतिबंधित संगठन घोषित किया गया था, क्योंकि यह भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त था। 1 जुलाई, 2024 की अवधि के दौरान, असम में विस्फोटों या विस्फोटक लगाने से संबंधित 16 आपराधिक मामलों में इसकी संलिप्तता पाई गई। इस संगठन पर पहले भी समय-समय पर प्रतिबंध लगाया जाता रहा है। स्वतंत्रता दिवस, 2024 से पहले पूरे असम में इस संगठन द्वारा कई तात्कालिक विस्फोटक उपकरण (IED) लगाए जाने की घटनाएँ सामने आई थीं।
गृह मंत्रालय की अधिसूचना के अनुसार, गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत पिछली बार ULFA पर प्रतिबंध 27 नवंबर, 2019 से 5 वर्षों के लिए बढ़ाया गया था। 25 नवंबर, 2024 को जारी नवीनतम अधिसूचना के अनुसार, केंद्र सरकार ने इस संगठन के सभी गुटों, शाखाओं और सहयोगी संगठनों को 27 नवंबर, 2024 से अगले 5 वर्षों के लिए गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया है।
गृह मंत्रालय ने कहा कि ULFA, अपने सभी गुटों और अग्रणी संगठनों के साथ मिलकर ऐसी गतिविधियों में शामिल रहा है, जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए हानिकारक हैं। संगठन ने असम को भारत से अलग करने के अपने उद्देश्य की सार्वजनिक रूप से घोषणा की है और अवैध धन उगाही तथा जबरन वसूली जैसी गतिविधियाँ जारी रखी हैं। इसके अलावा, यह अन्य उग्रवादी समूहों के साथ भी संबंध बनाए रखता है।
अधिसूचना में यह भी उल्लेख किया गया है कि संगठन के पास अवैध हथियार और गोला-बारूद हैं, और यह 27 नवंबर, 2019 से विध्वंसक गतिविधियों में शामिल रहा है। माना जाता है कि ULFA के कट्टरपंथी गुट का नेतृत्व परेश बरुआ कर रहा है, जो चीन-म्यांमार सीमा पर अपने सुरक्षित ठिकानों से संगठन की गतिविधियों को संचालित कर रहा है।
गौरतलब है कि ULFA के वार्ता समर्थक गुट, जिसका नेतृत्व अरबिंद राजखोवा कर रहे हैं, ने 29 दिसंबर, 2023 को केंद्र और असम सरकार के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत संगठन ने हिंसा छोड़ने, हथियार सौंपने, संगठन को भंग करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने पर सहमति व्यक्त की थी। हालांकि, परेश बरुआ के नेतृत्व वाला कट्टरपंथी गुट अब भी हिंसक गतिविधियों में संलिप्त बना हुआ है।
सरकार का यह कदम असम में स्थायी शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है।
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सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति का संवैधानिक प्रश्न..
संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या लोकतंत्र के हित में होनी चाहिए, ताकि देश में शासन की स्थिरता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे।

अनुच्छेद 143:राष्ट्रपति की सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने का विवाद
परिचय
हाल ही में भारत की राजनीति में एक अहम बदलाव देखने को मिला है, जो न केवल भारत में बल्कि अमेरिका समेत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में है। भारतीय राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय से एक महत्वपूर्ण कानूनी राय मांगी है। इस कदम ने भारतीय संवैधानिक व्यवस्था और न्यायपालिका की भूमिका पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
यह लेख आपको इस विवाद की पूरी जानकारी देगा, साथ ही अनुच्छेद 143 क्या है, सुप्रीम कोर्ट के विकल्प क्या हैं, इस विवाद के राजनीतिक और न्यायिक प्रभाव क्या हो सकते हैं, और भारत व अमेरिका के दर्शकों के लिए इसका महत्व क्या है, यह समझाएगा।
अनुच्छेद 143 क्या है? (What is Article 143?)
भारत के संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को किसी भी संवैधानिक या कानूनी सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने की अनुमति देता है। यह सलाहकार प्रकृति का होता है, यानी सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी नहीं होती, परन्तु इसका प्रभावी महत्व होता है; लेकिन यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट को यह पावर है कि राष्ट्रपति के द्वार मांगे गए सलाह को दे या न दे मतलब सुप्रीम कोर्ट भी इसके लिए बिल्कुल बाध्यकारी नहीं है.
अनुच्छेद 143 के मुख्य बिंदु | विवरण |
---|---|
उद्देश्य | राष्ट्रपति को सलाह देना |
सवाल किसके द्वारा आते हैं | राष्ट्रपति (संसद या केंद्र सरकार के सुझाव पर) |
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका | सलाहकार राय देना, बाध्यकारी नहीं |
राय का पालन करना जरूरी नहीं | हाँ |
विवाद की पृष्ठभूमि: तमिलनाडु राज्यपाल बनाम सरकार
तमिलनाडु के राज्यपाल और सरकार के बीच एक संवैधानिक विवाद ने इस मामले को जन्म दिया। राज्यपाल ने विधानसभा से पारित कुछ बिलों पर सहमति देने में विलंब किया, जो राज्य सरकार के लिए परेशानी का कारण बना। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2025 में फैसला देते हुए कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर निर्णय के लिए निश्चित समयसीमा (राज्यपाल के लिए 3 महीने, राष्ट्रपति के लिए 3 महीने) निर्धारित करनी चाहिए।
इस फैसले को लेकर कई राजनीतिक दल और न्यायिक विशेषज्ञ अलग-अलग राय व्यक्त कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट का जवाब और राष्ट्रपति की नई अपील
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले फैसले में राज्यपालों की शक्ति पर नियंत्रण के लिए समयसीमा तय की, राष्ट्रपति महोदया ने अनुच्छेद 143 के तहत 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट को भेजे हैं। इनमें प्रमुख सवाल हैं:
- क्या सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक मामलों में बड़ी बेंच (5 या अधिक जज) बनानी चाहिए?
- क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत संविधान के खिलाफ आदेश दे सकता है?
- क्या राज्य और केंद्र के विवाद अनुच्छेद 131 के तहत ही सुलझाए जाने चाहिए?
भारत और अमेरिका में अनुच्छेद 143 जैसे प्रावधान: तुलना
पहलू | भारत (अनुच्छेद 143) | अमेरिका (Supreme Court Advisory Role) |
---|---|---|
सलाहकार भूमिका | राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेना | राष्ट्रपति को कोर्ट से आधिकारिक सलाह नहीं मिलती |
बाध्यता | सलाह बाध्यकारी नहीं | सलाह बाध्यकारी नहीं |
कानूनी संदर्भ | संवैधानिक विवादों में उपयोग | न्यायपालिका स्वतंत्र, सलाहकारी भूमिका नहीं |
राजनीतिक प्रभाव | केंद्र-राज्य विवादों में महत्वपूर्ण | तीन सरकारी शाखाएं स्वतंत्र, राजनीतिक हस्तक्षेप कम |
अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भारत की तरह संविधान के व्याख्याकार की है, लेकिन राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 143 जैसे अधिकार नहीं हैं कि वे कोर्ट से औपचारिक सलाह लें। इसलिए भारत में अनुच्छेद 143 का महत्व और विवाद अलग है।
समाचार से संबंधित लोगों की राय
“सुप्रीम कोर्ट का निर्णय केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति की राय लेना न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवैधानिक सीमा तय करेगा।”
— संदीप मिश्रा, संवैधानिक विशेषज्ञ, दिल्ली विश्वविद्यालय
“अमेरिका में न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र है, लेकिन भारत में अनुच्छेद 143 जैसे प्रावधान न्यायपालिका को कार्यपालिका के करीब लाने का माध्यम हैं।”
— डॉ. जॉन स्मिथ, अमेरिकी राजनीति के प्रोफेसर, हार्वर्ड विश्वविद्यालय
अनुच्छेद 143 के राजनीतिक और न्यायिक प्रभाव
- राज्यपालों की भूमिका पर असर: समय सीमा तय होने से राज्यपालों की सहमति में देरी की संभावना कम होगी, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच विवाद घटेगा।
- न्यायपालिका का दायरा बढ़ना: अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की भूमिका विवादित मुद्दों पर सलाहकार के रूप में बढ़ेगी।
- राजनीतिक तनाव: कुछ राजनीतिक दल इस कदम को न्यायपालिका का कार्यपालिका में हस्तक्षेप मानते हैं।
- अमेरिका के लिए सीख: भारत का यह संवैधानिक विवाद अमेरिका के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाता है कि कैसे संवैधानिक व्यवस्थाएं लोकतंत्र में शक्ति संतुलन बनाती हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
1. अनुच्छेद 143 का उद्देश्य क्या है?
राष्ट्रपति को संवैधानिक और कानूनी सवालों पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेना।
2. क्या सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी होती है?
नहीं, यह सलाहकार होती है और बाध्यकारी नहीं होती।
3. इस विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला दिया था?
राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर निर्णय के लिए 3-3 महीने की समयसीमा तय करने को कहा गया।
4. अमेरिका में क्या ऐसा कोई प्रावधान है?
नहीं, अमेरिका में राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने का कोई औपचारिक अधिकार नहीं है।
5. अनुच्छेद 143 से भारतीय राजनीति पर क्या असर होगा?
यह केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन और न्यायपालिका की भूमिका को प्रभावित करेगा।
निष्कर्ष
भारत में अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से राय मांगना एक संवैधानिक और राजनीतिक जटिल मुद्दा है। यह न केवल भारत में बल्कि अमेरिका जैसे लोकतंत्रों के लिए भी एक महत्वपूर्ण केस स्टडी है कि कैसे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखा जाए।
इस विवाद से स्पष्ट होता है कि संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या लोकतंत्र के हित में होनी चाहिए, ताकि देश में शासन की स्थिरता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे।
अगर आप इस विषय पर और जानना चाहते हैं, तो नीचे कमेंट करके बताएं।
स्रोत:
- The Hindu – सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 143
- Indian Express – अनुच्छेद 143 विवाद
- Harvard Political Review – Judiciary in India and US
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भारत और तालिबान:A new turn in South Asian diplomacy
15 मई 2025 को भारत और तालिबान के बीच पहली बार सीधी बातचीत हुई। जानिए इस कूटनीतिक कदम का क्षेत्रीय और वैश्विक महत्व, भारत की रणनीति, तालिबान का रुख, और इस घटना का पाकिस्तान समेत अन्य देशों पर प्रभाव।

तालिबान का बदलता रुख: भारत के लिए अवसर?
तालिबान ने भारत को आश्वासन दिया है कि वह किसी भी आतंकी गतिविधि में शामिल नहीं है, और कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानता है। यह रुख पाकिस्तान के लिए बड़ा झटका है, जो तालिबान को हमेशा अपनी रणनीतिक गहराई मानता रहा है।
पाकिस्तान को झटका क्यों?
- तालिबान ने भारत के साथ संबंध सुधारने की इच्छा जताई
- ड्रोन हमले के पाकिस्तानी दावे को खारिज किया
- कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के एजेंडे से दूरी
क्षेत्रीय और वैश्विक संदर्भ
अन्य प्रमुख देशों का दृष्टिकोण
देश | स्थिति |
---|---|
अमेरिका | अफगानिस्तान से बाहर, लेकिन भारत की सक्रियता पर नज़र |
चीन | पाकिस्तान के माध्यम से तालिबान से संपर्क |
रूस | पहले से तालिबान के साथ संवाद में |
ईरान | अफगान सीमा और शरणार्थियों को लेकर चिंतित |
यह बातचीत भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?
- अफगानिस्तान में निवेश की सुरक्षा
भारत ने अफगानिस्तान में 3 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है। इन परियोजनाओं की सुरक्षा के लिए तालिबान से संवाद जरूरी हो गया है। - कूटनीतिक प्रभाव का विस्तार
भारत चाहता है कि अफगानिस्तान में चीन और पाकिस्तान का प्रभाव सीमित हो। - आंतरिक सुरक्षा
तालिबान से सीधा संपर्क कश्मीर और सीमा क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियों पर नजर रखने में सहायक हो सकता है।
समाचार और प्रमाणिक स्रोत
समाचार | स्रोत लिंक |
---|---|
भारत और तालिबान की बातचीत | MEA India, Al Jazeera, Reuters |
तालिबान का पाकिस्तान को जवाब | Tolo News, Dawn News (Pakistan), ANI News |
निष्कर्ष
भारत और तालिबान:A new turn in South Asian diplomacy भारत ने यह साबित कर दिया है कि वह केवल आदर्शवाद के सहारे नहीं, बल्कि ज़मीनी हकीकत और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर निर्णय लेता है।
यह वार्ता सिर्फ अफगानिस्तान तक सीमित नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की पूरी रणनीतिक संरचना को प्रभावित कर सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
प्रश्न 1: क्या भारत ने तालिबान को आधिकारिक मान्यता दे दी है?
उत्तर: नहीं। भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन संवाद शुरू कर व्यावहारिक संबंधों की दिशा में कदम बढ़ाया है।
प्रश्न 2: क्या तालिबान भारत के लिए खतरा नहीं है?
उत्तर: तालिबान का वर्तमान रुख भारत के प्रति तटस्थ है। उसने आतंकी हमलों की निंदा की है और पाकिस्तान के एजेंडे से दूरी बनाई है। लेकिन सतर्कता अब भी जरूरी है।
प्रश्न 3: भारत तालिबान से संवाद क्यों कर रहा है?
उत्तर: अफगानिस्तान में निवेश की सुरक्षा, पाकिस्तान और चीन के प्रभाव को संतुलित करना और क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखना भारत के इस कदम के प्रमुख कारण हैं।
प्रश्न 4: क्या इस बातचीत से कश्मीर को लेकर स्थिति बदल सकती है?
उत्तर: तालिबान द्वारा कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानना भारत के लिए एक कूटनीतिक सफलता मानी जा सकती है।
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International
ट्रम्प का सऊदी दौरा: Geo Political Game
ट्रम्प की सऊदी यात्रा, भारत-पाक तनाव के प्रभाव, और मध्य पूर्व के रणनीतिक समीकरणों को विस्तार से समझेंगे।

भारत-पाक तनाव के बीच ट्रम्प का सऊदी दौरा:
चलिए, समझते हैं..
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव के बीच, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सऊदी अरब पहुँचे हैं। यह यात्रा केवल एक कूटनीतिक दौरा नहीं, बल्कि कई गहरे भू-राजनीतिक और आर्थिक मायने रखती है। ट्रम्प का सऊदी अरब से पुराना नाता है, जो अब 600 अरब डॉलर के निवेश समझौते के रूप में सामने आया है। इस लेख में हम ट्रम्प की सऊदी यात्रा, भारत-पाक तनाव के प्रभाव, और मध्य पूर्व के रणनीतिक समीकरणों को विस्तार से समझेंगे।
ट्रम्प की सऊदी यात्रा और 600 अरब डॉलर का निवेश समझौता
ट्रम्प का सऊदी अरब का यह दौरा उनका पुराना हित दर्शाता है। जब वे पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तब भी उन्होंने 450 अरब डॉलर का व्यापारिक समझौता किया था। अब दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने सबसे पहले सऊदी की यात्रा की और 600 अरब डॉलर के निवेश समझौते पर हस्ताक्षर किए।
प्रमुख डील का सारांश
निवेश क्षेत्र | राशि (अमेरिकी डॉलर में) | उद्देश्य |
---|---|---|
रक्षा एवं प्रौद्योगिकी | 142 अरब | ईरान के खिलाफ सुरक्षा बढ़ाना |
अन्य क्षेत्रों में निवेश | 458 अरब | इन्फ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और ऊर्जा |
न्यूज़ सोर्स: Reuters, Bloomberg
सऊदी अरब और ईरान के बीच संघर्ष: धार्मिक और भू-राजनीतिक कारण
सऊदी अरब और ईरान के बीच पुरानी दुश्मनी है। सऊदी अरब सुन्नी इस्लाम का प्रमुख केंद्र है जबकि ईरान शिया इस्लाम का वैश्विक नेता बनने का प्रयास कर रहा है। दोनों देश मध्य पूर्व में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए “शीत युद्ध” की तरह टकराव कर रहे हैं।
कोटेशन:
“सऊदी अरब और ईरान के बीच संघर्ष न केवल धार्मिक है बल्कि यह क्षेत्रीय प्रभुत्व और वैश्विक रणनीति का भी हिस्सा है।” – Dr. Faisal Abbas, Middle East Expert
यह टकराव तेल उत्पादन और कीमतों पर भी प्रभाव डालता है क्योंकि दोनों OPEC के सदस्य हैं।
अमेरिका का सऊदी-पाकिस्तान-भारत त्रिकोणीय हित
ट्रम्प की सऊदी यात्रा और भारत-पाक तनाव के बीच गहरा सम्बन्ध है। ट्रम्प चाहते थे कि उनकी सऊदी यात्रा से पहले दक्षिण एशिया में शांति बनी रहे ताकि उनका निवेश समझौता और कूटनीतिक छवि मजबूत हो।
पाकिस्तान पर सऊदी का समर्थन और अमेरिकी दबाव
पाकिस्तान को सऊदी अरब का धार्मिक और आर्थिक समर्थन मिलता रहा है। अगर भारत-पाक तनाव बढ़ता तो यह सऊदी-अमेरिकी समझौते पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता था।
ट्रम्प के उद्देश्य:
- भारत-पाक तनाव को शांत कर दक्षिण एशिया में स्थिरता बनाना।
- सऊदी अरब में अपनी “शांतिदूत” छवि बनाना।
- ईरान-प्रश्न पर ध्यान केंद्रित कर सुरक्षा समझौतों को प्रमुखता देना।
न्यूज़ सोर्स: Al Jazeera, The Hindu
भारत की प्रतिक्रिया और कश्मीर मुद्दे पर स्पष्टता
भारत ने स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान का द्विपक्षीय मामला है, जिसमें किसी तीसरे पक्ष की दखलंदाजी स्वीकार्य नहीं है। भारत ने यह भी कहा कि सीजफायर अमेरिका के दबाव में नहीं, बल्कि दोनों देशों की अपनी रणनीति का परिणाम है।
कोटेशन:
“भारत कश्मीर को अपने आंतरिक मामले के रूप में देखता है और किसी बाहरी मध्यस्थ को स्वीकार नहीं करेगा।” – Ministry of External Affairs, India
ट्रम्प की सऊदी यात्रा के राजनीतिक फायदे
ट्रम्प को अमेरिकी जनता के सामने यह दिखाना था कि वे एक मजबूत नेता हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति और आर्थिक समझौते करवा सकते हैं। उनकी टैरिफ वॉर और महँगाई की नीतियों के बीच यह बड़ी कूटनीतिक सफलता थी।
- 2024 के चुनाव से पहले ट्रम्प की स्ट्रॉन्ग लीडर छवि।
- सऊदी अरब से 600 अरब डॉलर की डील का राजनीतिक लाभ।
- भारत-पाक तनाव को मीडिया से हटाकर सऊदी डील पर फोकस करना।
सऊदी अरब का ‘विजन 2030’ और तकनीक में निवेश
सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) का उद्देश्य देश की तेल निर्भरता कम कर, टेक्नोलॉजी, AI, और रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश बढ़ाना है। NEOM जैसे स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट इसका हिस्सा हैं।
प्रमुख पहलू:
- तेल पर निर्भरता कम करना:
रिन्यूएबल एनर्जी, AI, रोबोटिक्स में भारी निवेश। - रक्षा और प्रौद्योगिकी:
142 अरब डॉलर का रक्षा और तकनीक का सौदा, जिसमें THAAD मिसाइल डिफेंस शामिल है। - बहुपक्षीय साझेदारी:
भारत और इजरायल के साथ डिजिटल और AI समझौते। - अमेरिका के साथ सहयोग:
अमेरिकी नौकरियाँ बढ़ाना और अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाना।
न्यूज़ सोर्स: CNBC, Saudi Gazette
निष्कर्ष
ट्रम्प की सऊदी यात्रा, भारत-पाक तनाव, और मध्य पूर्व के सुरक्षा समझौते एक जटिल भू-राजनीतिक खेल हैं।
- ट्रम्प ने भारत-पाक तनाव शांत कर अपनी छवि बनाई।
- भारत ने कश्मीर मामले में बाहरी हस्तक्षेप को ठुकराया।
- सऊदी अरब ने टेक्नोलॉजी और रक्षा क्षेत्र में अमेरिका पर निर्भरता बढ़ाई।
यह यात्रा सिर्फ एक निवेश डील नहीं, बल्कि एक रणनीतिक कदम है जो आने वाले वर्षों में मध्य पूर्व और वैश्विक भू-राजनीति को प्रभावित करेगा।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. ट्रम्प की सऊदी यात्रा का मुख्य उद्देश्य क्या था?
ट्रम्प की सऊदी यात्रा का मुख्य उद्देश्य अमेरिका-सऊदी अरब के बीच बड़े निवेश और रक्षा समझौते को मजबूत करना था, साथ ही भारत-पाक तनाव को कम कर अपनी कूटनीतिक छवि सुधारना भी था।
2. भारत-पाक तनाव पर सऊदी अरब का क्या रुख है?
सऊदी अरब पाकिस्तान का धार्मिक और आर्थिक समर्थन करता रहा है, लेकिन अब वह मध्य पूर्व के अन्य गहरे हितों के चलते भारत के साथ भी साझेदारी बढ़ा रहा है।
3. ‘विजन 2030’ में सऊदी अरब क्या करना चाहता है?
सऊदी अरब ‘विजन 2030’ के तहत अपनी तेल निर्भरता कम करके टेक्नोलॉजी, AI, रिन्यूएबल एनर्जी, और स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स में निवेश बढ़ाना चाहता है।
4. क्या भारत कश्मीर मुद्दे में अमेरिका की मध्यस्थता स्वीकार करेगा?
भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि कश्मीर भारत-पाकिस्तान का द्विपक्षीय मामला है और इसमें किसी तीसरे पक्ष को दखल देने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
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